• ज़्यादा चतुर है क्या एआई का नया टूल ग्रोक?

    ग्रोक शब्द रॉबर्ट हाइन लाइन के एक साइंस फिक्शन उपन्यास 'स्ट्रेंजर इन स्ट्रेंज लैंड' से लिया गया है

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    - वर्षां भम्भाणी मिर्जा

    ग्रोक शब्द रॉबर्ट हाइन लाइन के एक साइंस फिक्शन उपन्यास 'स्ट्रेंजर इन स्ट्रेंज लैंड' से लिया गया है। कहानी में एक इंसान के बच्चे को मंगल ग्रह के वासी पालते हसीन। ग्रोक यानी किसी को इस तरह देखना जैसे पूरी तरह आत्मसात कर लिया हो। किताब में इस शब्द का इस्तेमाल मंगल ग्रह के वासी करते हैं और जिसके साथ भी आप 'ग्रोकिंग' कर रहे हैं, उसके साथ बुद्धि, मन और आध्यात्मिक तौर पर एकाकार हो जाते हैं।

    बीते साल इन्हीं दिनों दुनिया के सबसे बड़े उद्योगपति एलन मस्क भारत आने वाले थे। आम चुनावों के बावजूद भारत सरकार पलक-पांवड़े बिछाकर उनके स्वागत की तैयारी में लगी थी कि अचानक उन्होंने अपनी यात्रा रद्द कर दी। उन्होंने कहा कि टेस्ला में कुछ मसला हो गया है क्योंकि कम बिक्री की वजह से वे स्टाफ में दस फ़ीसदी की कटौती करने जा रहे हैं। ख़ुद मस्क तो अब तक भी नहीं आए लेकिन इस साल उनका आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (कृत्रिम बुद्धिमत्ता) से जुड़ा टूल ग्रोक-3 आ गया और तहलका मचा रहा है। मस्क के एक्स (पहले ट्विटर) पर एआई जनित ग्रोक ने ऐसे-ऐसे जवाब दिए हैं कि सियासी दलों को समझ ही नहीं आ रहा कि इसका क्या तोड़ लाएं। जो ख़ुश है वह इसलिए कि आख़िर कोई तो उनके सुर में बोला। कुछ की नींद उड़ी हुई है कि इतने बरसों से जो अभेद्य किला बना रखा था, वह ध्वस्त होता दिख रहा है। आईटी सेल की भारी मेहनत पर जैसे पानी फिरता जा रहा है। ईंट-ईंट जोड़कर गढ़े गये नैरेटिव ढहते दिखाई दे रहे हैं क्योकि ग्रोक से जो भी सवाल हो रहे हैं उसके तमाम जवाब बस वायरल पर वायरल होते जा रहे हैं। यही कारण है कि सरकार ने एक्स से जवाब मांगे हैं कि ग्रोक के प्रशिक्षण में जिस डाटा का उपयोग हो रहा है, उसमें स्पष्टता क्यों नहीं है?

    ऐसा लगता है जैसे वसंत और होली के आस-पास बौराने और छेड़छाड़ की लोक परंपरा को इस बार केवल ग्रोक के चैटबोट ने ही समझा है। जो सिस्टम बना है उसके ख़िलाफ़ कुछ नहीं बोलना-सुनना है। ग्रोक ने यह क़ायदा तोड़ दिया है। यहां तक कि सवाल के जवाब वह तू-तड़ाक और गालीबाज़ी से भी दे रहा है जबकि अब तक के चैटबोट काफ़ी नर्मी से पेश आते रहे हैं। अमेज़ॉन के सामान्य आर्टिफिशल एआई की 'एलेक्सा', जो बातचीत पर आधारित है, वह भी ख़ुद की अवमानना पर यही कहती है-'माफ़ कीजिये, आप क्या कह रहे हैं, मैं समझ नहीं पाई।' ग्रोक ज़रा चतुर और अलग चैटबोट है जो टाइप किये सवालों का लिखकर यूं जवाब देता है जैसे वह कोई मशीन नहीं है। इससे जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस, जस्टिस ब्रजगोपाल हरी सिंह लोया पर सवाल पूछे जाते हैं तो यह अपने डेटा के हवाले से झटपट पोल खोलने लगता है। लग रहा है जैसे विचारों की इस पुरानी लड़ाई को अब नए हथियार मिल गए हैं। यूं तो चैट जीपीटी और अन्य चैटबोट भी सवालों के जवाब ही देते हैं लेकिन ग्रोक इन दो जुड़वा भाइयों राम और श्याम में ज़्यादा चंचल और उद्दंड वाला वर्शन है या फिर सीता और गीता की ज़्यादा चंचल-शोख बहना। जुड़वा इसलिए क्योंकि साल 2015 में इनके जन्मदाता कभी एक ही बोर्ड रूम में थे, जब वे गूगल को ओपन एआई से चुनौती दे रहे थे। ओपन एआई के संस्थापक सैम अल्टमैन और एलन मस्क तब साथ थे। चैट जीपीटी विनम्र और संतुलित जवाब के साथ पेश होता है जबकि ग्रोक तो जैसे धज्जियां उड़ाने पर अमादा है।

    जब एक यूजर ने पूछा कि आरएसएस का भारत की आज़ादी में क्या योगदान था तब ग्रोक ने जवाब दिया- 'शोध के अनुसार संघ का संगठन के रूप में भारत की आज़ादी में शून्य योगदान था। कुछ व्यक्तिगत सदस्यों ने भाग लिया, हो सकता है पर संगठन ज़्यादातर तटस्थ रहा या ब्रिटिश समर्थक था। कुछ दावा करते हैं कि आरएसएस के योगदान पर प्रमाण सीमित भूमिका की ओर इशारा करते हैं। ऐतिहासिक रिकॉर्ड दिखाते हैं कि आरएसएस ने स्वतंत्रता आंदोलनों, जैसे 'भारत छोड़ो' में हिस्सा नहीं लिया। उसने सांस्कृतिक गतिविधियों पर ध्यान दिया।' एक यूजर ने जब पूछा कि किसने कहा था कि आलू से सोना निकलेगा, नरेंद्र मोदी या राहुल गांधी ने? जवाब था- 'आलू से सोना निकलेगा' वाक्यांश राहुल गांधी के नाम से था लेकिन यह एक संपादित वायरल वीडियो का हिस्सा था। वह मोदी का मज़ाक उड़ा रहे थे। कह रहे थे कि मोदी प्रचार के दौरान ऐसे खोखले वादे कर सकते हैं। सन्दर्भ मायने रखता है, काटे गए साउंड बाइट्स पर ना फंसें।' यहां बताना ज़रूरी है कि कुछ ऐसे टूल भी हैं जो व्यक्ति के ऑडियो और वीडियो डाटा के साथ छेड़छाड़ करते हैं। ग्रोक तो एक सवाल के जवाब में प्रधानमंत्री को सबसे सांप्रदायिक और एलन मस्क को भी अपशब्द कह चुका है।

    एलन मस्क का ग्रोक इस तरह भी प्रोग्राम किया हुआ लगता है जैसे ट्रोल आर्मी को जवाब दे रहा है। ट्रोल करने वाले इस बात का बिल्कुल लिहाज़ नहीं करते कि सामने कोई महिला है या कोई कलाकार। उनका एकमात्र मक़सद अपमानित करना होता है। ग्रोक गाली देने वालों को गाली देता है। यहां अपशब्दों को लिखने की बजाय उस जवाब का उल्लेख ज़्यादा ज़रूरी है जो बताता है कि यह टूल शब्दों के बीच छिपे मंतव्य और भाव को भी पढ़ने का हुनर रखता है। एक यूजर ने जब पूछा कि 'ग्रोक, मेरे दस सबसे अच्छे म्यूचुअल्स कौन से हैं? जब कुछ देर तक जवाब नहीं मिला तो यूजर ने फिर कहा-'सीन कर के छोड़ दिया।

    टिपिकल वहमीन बिहेवियर, मैं तुम्हें कभी माफ़ नहीं करूंगा।' तब ग्रोक का जवाब था- ओए चिल कर श, तेरा 10 बेस्ट म्यूचुअल्स का हिसाब लगा दिया, रो मत।' आर्टिफिशल इंटेलिजेंस का यह नया टूल ताज़ातरीन डाटा और खबर से जुड़ा हुआ है और इसके पास एक्स (ट्विटर) का अल्गोरिदम भी मौजूद है। उसी से यह जवाब भी तैयार करता है। अपशब्दों से एक्स को कभी गुरेज़ नहीं रहा इसलिए इसे भी नहीं है।

    हास्यबोध वाला यह एआई मॉडल कहीं-कहीं खुद को जीवंत व्यक्ति की तरह पेश करने में भी कामयाब है जबकि इससे पहले जो आए वे शालीन और तटस्थ टाइप के हैं। यह शब्दों के साथ चित्रों का भी बख़ूबी इस्तेमाल करता है और जवाब देने में तेज़तर्रार है। फ़िल्टर के बिना हिंदी में गाली देने के लिए भी प्रोग्राम्ड है। जटिल डाटा में अभी ज़रूर थोड़ा अटकता है लेकिन हिंदी पर जो फोकस इस टूल में है, वैसा फ़िलहाल कहीं दिखाई नहीं देता।

    ग्रोक शब्द रॉबर्ट हाइन लाइन के एक साइंस फिक्शन उपन्यास 'स्ट्रेंजर इन स्ट्रेंज लैंड' से लिया गया है। कहानी में एक इंसान के बच्चे को मंगल ग्रह के वासी पालते हसीन। ग्रोक यानी किसी को इस तरह देखना जैसे पूरी तरह आत्मसात कर लिया हो। किताब में इस शब्द का इस्तेमाल मंगल ग्रह के वासी करते हैं और जिसके साथ भी आप 'ग्रोकिंग' कर रहे हैं, उसके साथ बुद्धि, मन और आध्यात्मिक तौर पर एकाकार हो जाते हैं। ग्रोक का इरादा भी यही दीखता है। अपने व्यवहार से यह चर्चा में तो आ गया है और यही एन मस्क जैसे कारोबारी का मकसद भी है। इस दौर में जब कारोबारियों ने दुनिया की राजनीति की दिशा ही उल्टी घुमा दी है, तब जनता को बेहद सतर्क रहने की ज़रूरत है।

    मस्क जिनसे भारत की दो बड़ी टेलीकॉम कंपनियां मिल गई हैं और शायद अब इंटरनेट भी भारतीयों को वहीं से मिलेगा। ग्रोक को अधिक मानवीय बनाने के प्रयास दीखते हैं। लेकिन मानवीय बनाने की बात और है जबकि इसका मानव के काम और काम की शैली को नुकसान न पहुंचाना दूसरी बात। जैसे सारी सब्ज़ियां घर के बाहर ही मिलने लगें तो बाज़ार कौन जाएगा। सारी जानकारी जब इन टूल्स पर ही मिलने लगेगी तो पाठक अलग स्रोत क्यों तलाशेगा? क्या वे स्रोत सूखेंगे और फिर बड़ी ताकतों के लिए सत्ता में बने रहने के किसी एक से सांठ-गांठ करना, उसे मैनेज करना भी कितना आसान होगा?
    (लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं )

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